संस्कृत में कहा गया है कि गद्य कवियों का निकष है। हिंदी में आकर इस उक्ति का
अर्थ प्रायः यह समझा गया है कि कवियों को कविता के अलावा कहानी या आलोचना में
भी कुछ काम करते रहना चाहिए। कवि त्रिलोचन ने इस प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते
हुए कभी लिखा था - 'गद्य वद्य कुछ लिखा करो कविता में क्या है'। कवि-कथाकार और
कवि-आलोचक जैसी नई श्रेणियाँ सामने आ गईं और इस तरह के सूत्रीकरण भी कि ऐसे
लेखकों की कथारचना और आलोचना भी छूँछे कथाकारों और आलोचकों से बेहतर होती है,
कविता का तो कहना ही क्या। अनेक विधाओं में काम करने पर लेखन में निखार आना तो
स्वाभाविक है, लेकिन उपर्युक्त उक्ति में गद्य का उल्लेख कवियों की कविता ही
के संदर्भ में की गई है। कवि को संबोधित कथन सबसे पहले उसकी कविता के संदर्भ
में होगा क्योंकि वही उसे कवि बनाती है।
दरअसल, हिंदी में गद्य और पद्य को परस्पर विलोम नहीं तो नदी के दो पाटों की
तरह समानांतर मानकर चलने की रीति रही है। इस खाईं को पाटने के लिए "गद्य
कविता" नामक विधा का प्रचलन भी इसी रीति की ताईद करता है। सच तो यह है कि
कविता, चाहे वह तुकांत हो या अतुकांत, छंदोबद्ध हो या मुक्तछंद हमेशा गद्य पर
निर्भर रही है। प्राचीन संस्कृत से आधुनिक हिंदी तक तमाम भाषाओं की इसकी
यात्रा इस बात की बेहिचक पुष्टि करती है।
भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य है और वाक्य गद्य और पद्य में अलग अलग नहीं होते।
कविता और गद्य के वाक्यों में ख़ास अंतर यह होता है कि गद्य के वाक्यों में
अर्थ की बहुलता उसे संदिग्ध बनाती है जबकि कविता में यह उसका विशेष गुण होती
है। इसलिए कविता में यह कमाल दिखाने के लिए कवि को वाक्य में कर्ता, कर्म और
क्रिया के क्रम में फेरबदल की थोड़ी सी छूट मिलती है लेकिन वाक्य को
तोड़ने-मरोड़ने या उसका अंग-भंग करने की इजाज़त उसे क़तई नहीं है। बहरहाल, यहाँ
बिलकुल अनायास याद आने वाली कुछ काव्य पंक्तियों को प्रस्तुत करना उचित होगा -
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति - अज्ञात
कबिरा खड़ा बजार में माँगे सबकी ख़ैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर - कबीर
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरैं मोती मानुस चून - रहीम
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है - मीर
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई - ग़ालिब
गद्य के दो भरे पूरे वाक्यों से रचित कविता के ये उदाहरण बताते हैं कि भारतीय
कविता की लंबी परंपरा में गद्यमयता की यह रीति 19वीं सदी तक बिना रोकटोक चलती
रही है। बीसवीं सदी के आरंभिक युग में विशेषकर छायावाद के दौर में गद्य पर
निर्भरता की यह परंपरा हाथ से छूटी और उससे कविता का कुछ नुकसान भी हुआ लेकिन
परवर्ती हिंदी कविता इस मसले को लेकर सचेत दिखाई पड़ती है। हम कह सकते हैं कि
हिंदी कविता के मूल्यांकन में वाक्यों की रचना का दोषपूर्ण होना कोई बड़ी बाधा
नहीं है। यानी, रूप के स्तर पर तो हिंदी कविता गद्य के निकष पर खरी उतरती है,
लेकिन क्या अंतर्वस्तु के स्तर पर भी यही बात कही जा सकती है?